जाने कहां गए वो दिन...
मंगरू की नई दुल्हन के साथ मैं भी कानपूर से आगरा आई। इतने लंबे सफर और एक ही गा़ड़ी में पलंग,तोसको,फ्रीज,कुलर आदि के बीच फंसे होने के बाद भी मुझे थकान नहीं महसूस हो रही थी। मैं तो यही सोच कर खुश हो रही थी कि आखिरकार इतने लंबे समय तक बढ़ई की उस धूल-धक्कड वाली दुकान से छुटकारा मिल ही गया। बड़ा ठोक-ठाक करता था, रोज नई-नई कुर्सियां बनाता था। नए-नए लोग आते नई-पुरानी कुर्सियों को खरीद कर ले जाते। मुझे लगता मैं यू ही कोने में धूल खाती रहूंगी पर धन्यभाग्य की देर से ही सही इतने बड़े घर में नई बहुरीया के साथ मान-सम्मान के साथ आने का मौका तो मिला। घर में लाई गई तो मैं भी मंगरू की नई बहुरियां की तरह बहुत इठला रही थी। आंचल तो नहीं था पर उसकी तरह शर्माने की कोशिश कर रही थी। मंगरू के पापा बोल रहे थे अरे इस कुर्सी को यहां, उसकी मां बोल रही थी, इसे रसोई के साथ लगे टेबल के पास लगाओ, पर मंगरू ने कहा इस कुर्सी के साथ और भी 5 कुर्सियां हैं और एक मेज है जो बैटके में लगेगी सबने मंगरू की बात रखी और मैं अपनी बिरादरी वालों के साथ बैठके में सज गई। नए-नए लोगों की खातिरदारी जहां एक ओर मंगरू का परिवार कर रहा